स्मृति


मैं कितनी बार झपकियाँ लेता हूँ
उब कर इन खाली उनींदी दोपहरों से –
शाम भी हो आती है,
दिन मग़र डूबता ही नहीं!
.
मैं जागता ही रहता हूँ रात-रात भर
डूब जाता हूँ अँधेरे में –
रात भी सो जाती है,
चाँद मग़र ऊबता ही नहीं!
  1. सुन्दर अभिव्यक्ति ….

    • Ankit
    • फ़रवरी 16th, 2010

    Bahut Khoob!

    • preeti
    • फ़रवरी 18th, 2010

    very beautiful 🙂

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