रात चाँद के चाकू से


रात के सीने में इतना दर्द हुआ रात
कि उसने चाँद के चाकू से
अपनी नब्ज़ काट ली ;
क़तरा-क़तरा ख़ून बहा
पर घुप अँधेरे में किसी को खबर तक न हुयी ।
सुबह सूरज निकला तो दर्द का नाम-ओ-निशाँ न था कहीं,
और रौशनी के कफ़न में लिपटी रात
जलती रही दिन भर ।

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