मार्च 17th, 2016 के लिए पुरालेख

पाना

खुद को पाने की होड़ में
रौशनी की सुराग के पीछे भागता
सुबह-सुबह निकला मैं,
पर दिन भर
भटक कर यहाँ-वहाँ
थक कर चूर होकर
साँझ ढले जब लौटा
तुम्हारी बाहों के घेरे में,
पाया खुद को यहीं
तुम्हारी गहरी आँखों के
गहरे अँधेरे में

खोना

तुम न जाने कहाँ-कहाँ
खोयी-खोयी रहती हो आजकल
और मैं तुम में खोया
और भी खोता जाता हूँ
जहाँ-जहाँ खोयी खोयी रहती हो तुम ।
खोज पाओगी मुझे क्या
जब मैं जहाँ-तहाँ
तितर-बितर होकर
बिखर जाऊँगा,
और ढूंढ-ढूंढ कर भी खुद ही को जो
कहीं खोज नहीं पाउँगा ?

खुरच-खुरच कर

देह का कोयला झोंक झोंक कर
ज़िन्दगी के चलने से
साँस के जलने से
कड़वे धुएँ की जो परत जमी जाती है
मेरी रूह पर,
उसी को खुरच-खुरच कर
लिख देता हूँ
एक-आध कविता
कभी-कभार

गीली लकड़ी का टुकड़ा मेरा दिल

गीली लकड़ी का टुकड़ा मेरा दिल
तुम्हारे प्यार की आग में
जलता नहीं
सुलगता रहता है बस
ऐसे
कि धुएं से आँसूं आ जाते हैं आखों में और
और गीली हो जाती है लकड़ी
सुलगती रहती है बस
तुम्हारे प्यार की आग में

रात चाँद के चाकू से

रात के सीने में इतना दर्द हुआ रात
कि उसने चाँद के चाकू से
अपनी नब्ज़ काट ली ;
क़तरा-क़तरा ख़ून बहा
पर घुप अँधेरे में किसी को खबर तक न हुयी ।
सुबह सूरज निकला तो दर्द का नाम-ओ-निशाँ न था कहीं,
और रौशनी के कफ़न में लिपटी रात
जलती रही दिन भर ।